मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

आवश्यकता अछि सकारात्मक मौलिक चिन्तनक

आवश्यकता अछि सकारात्मक मौलिक चिन्तनक

मानवमात्रक विकास हेतु मौलिक चिन्तन अत्यावश्यक अछि। संगहिं विज्ञान आ प्रौद्योगिकीक निरन्तर विकासक मार्ग में मौलिक चिन्तनक उपेक्षा नहि कयल जासकैत अछि। कोनो राष्ट्र यदि विकसित राष्ट्र कऽ रूप में ख्यातिप्राप्त अछि तऽ एहि में मौलिक चिन्तक योगदान सहजतया इंगित कयल जा सकैत अछि।
एतय ’सकारात्मक’ पद जोडबाक आशय मात्र एतवा अछि जे मौलिक चिन्तन यदि ध्वंसात्मक हो तऽ ओ सर्वनाशक कारण सेहो भय सकैत अछि। आब प्रश्न ई अछि जे एहि लेख कऽ औचित्य की अछि? कियाक तऽ मनुक्ख जन्मजात विचारशील प्राणी होइत अछि। मौलिक चिन्तन ओकर स्वाभाविक गुण होइत छैक। मुदा… यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य कें ध्यान में राखल जाय तऽ व्यक्ति, चाहे ओ जे कोनो कारण हो, मौलिक चिन्तन सऽ परहेज राखय चाहैत अछि।
अपन गप्प कें हम आजुक शोधक सन्दर्भ कें विशेष रूप सऽ जोडय चाहैत छी कियाक तऽ भारतवर्षक विभिन्न उच्च अध्ययन संस्थान द्वारा करायल जा रहल विभिन्न विषय में शोध (जेकरा प्रचलित रूप मे M. Phil/ M. Tech, D. Phil Ph. D आदि कहैत छियैक), राष्ट्रक ज्ञानपरम्परा क संवर्धक आओर राष्ट्रक विकास में सहायक होइत अछि।
सामान्यतया आजुक स्थिति ई भय गेल अछि जे अधिकांश उच्च अध्ययन संस्थान द्वारा करायल जा रहल विभिन्न विषय में शोध, उपाधि प्राप्तिक हेतु मात्र भय जा रहल अछि। एहि विषय सऽ अपने लोकनि सेहो अंशतः वा पूर्णतः सहमत होयब। सामान्यतः देखल जाइत अछि जे विबिध ग्रन्थगत तथ्य आओर अवधारणा क प्रस्तुति कय शोधग्रन्थ तैयार कय उपाधि प्राप्त कय लेल जाइत अछि। ओकर गुणवत्ता पर ध्यान नहि देल जाइत अछि।
एतय हम एकटा महत्त्वपूर्ण संस्था मे जाहि विषय पर उपाधि देल गेल ओकर चर्चा करय चाहैत छी। विषय “Theory of false Cognition” (भ्रम सिद्धान्त) सँ संबन्धित छल। ओतय विभिन्न सिद्धान्त शोधकर्ता द्वारा प्रस्तुत कयल गेल। पूर्ववर्ती आचार्यक मत पर टिप्पणी हुनका आदर दैत नहिं कयल गेल। एतय हमर कथन जे- शोधकर्ता सँ अपेक्षित छल जे विभिन्न आचार्यक मत कें समीक्षा करितथि। जतय कतहु ओहि में समस्या छैक ओकर यथासंभव समाधान प्रस्तुत करितथि। अन्यथा तऽ ओ शोध पुनर्प्रस्तुतीकरणमात्र अछि जे जनमानस हेतु मात्र भारस्वरूप कहल जासकैत अछि।
एहि उदाहरणक माध्यम सँ हम मात्र एतेक कहय चाहैत छी जे केवल अन्धानुकरण कय अपन प्रतिभाक विकासक मार्ग अवरुद्ध नहिं करवाक चाही। एतय पूर्वाचार्यक प्रति अनादरक भाव नहि अभिप्रेत बुझी। प्रत्येक व्यक्ति के अपन मौलिक चिन्तन द्वारा ओ शोध हो अथवा व्यावहारिक जीवन, जनमानस कें नवीन दशा आओर दिशा देवा में सहयोग करैक चाही। अपन मिथिलाक संस्कृतिक प्रत्यभिज्ञा भेला सँ ई बात सहज रूप में स्पष्ट भय जाइत अछि जे ई माटि कखनहुं अन्धानुकरण के प्रश्रय नहिं देलकैक, अपन खण्डनमण्डानात्मक विधि द्वारा जनमानस के विकास में सहयोग दैत रहल अछि। एकरे परिणाम कहल जा सकैत अछि जे नव्यनाय क उत्पत्ति मिथिला में भय सकल जाहि कारण मिथिलाक संस्कृति आइयो समस्त विश्व में समादृत अछि। अस्तु आशा अछि जे एकर मर्यादा सतत राखल जायत।
बिपिन झा
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